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त्रि॒मू॒र्धानं॑ स॒प्तर॑श्मिं गृणी॒षेऽनू॑नम॒ग्निं पि॒त्रोरु॒पस्थे॑। नि॒ष॒त्तम॑स्य॒ चर॑तो ध्रु॒वस्य॒ विश्वा॑ दि॒वो रो॑च॒नाप॑प्रि॒वांस॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trimūrdhānaṁ saptaraśmiṁ gṛṇīṣe nūnam agnim pitror upasthe | niṣattam asya carato dhruvasya viśvā divo rocanāpaprivāṁsam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रि॒ऽमू॒र्धान॑म्। स॒प्तऽर॑श्मिम्। गृ॒णी॒षे॒। अनू॑नम्। अ॒ग्निम्। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑। नि॒ऽस॒त्तम्। अ॒स्य॒। चर॑तः। ध्रु॒वस्य॑। विश्वा॑। दि॒वः। रो॒च॒ना। आ॒प॒प्रि॒ऽवांस॑म् ॥ १.१४६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:146» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ छयालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि और विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे धारणशील उत्तम बुद्धिवाले जन ! जिससे तू (पित्रोः) पालनेवाले पवन और आकाश के (उपस्थे) समीप में (निसत्तम्) निरन्तर प्राप्त (त्रिमूर्द्धानम्) तीनों निकृष्ट, मध्यम और उत्तम पदार्थों में शिर रखनेवाले (सप्तरश्मिम्) सात गायत्री आदि छन्दों वा भूरादि सात लोकों में जिसकी प्रकाशरूप किरणें हों ऐसे (अनूनम्) हीनपने से रहित और (अस्य) इस (चरतः) अपनी गति से व्याप्त (ध्रुवस्य) निश्चल (दिवः) सूर्यमण्डल के (विश्वा) समस्त (रोचना) प्रकाशों को (आपप्रिवांसम्) जिसने सब ओर से पूर्ण किया उस (अग्निम्) बिजुली रूप आग के समान वर्त्तमान विद्वान् की (गृणीषे) स्तुति करता है सो तू विद्या पाने योग्य होता है ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे तीन बिजुली, सूर्य और प्रसिद्ध रूपों से अग्नि चराचर जगत् के कार्य्यों को सिद्ध करनेवाला है, वैसे विद्वान् जन समस्त विश्व का उपकार करनेवाले होते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निविद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे धीमन् यतस्त्वं पित्रोरुपस्थे निसत्तं त्रिमूर्द्धानं सप्तरश्मिमनूनमस्य चरतो ध्रुवस्य चराऽचरस्य दिवश्च विश्वा रोचनापप्रिवांसमग्निमिव वर्त्तमानं विद्वांसं गृणीषे स त्वं विद्यां प्राप्तुमर्हसि ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिमूर्द्धानम्) त्रिषु निकृष्टमध्यमोत्तमेषु पदार्थेषु मूर्द्धा यस्य तम् (सप्तरश्मिम्) सप्तसु छन्दस्सु लोकेषु वा रश्मयो यस्य तम् (गृणीषे) स्तौषि (अनूनम्) हीनतारहितम् (अग्निम्) विद्युतम् (पित्रोः) वाय्यावाकाशयोः (उपस्थे) समीपे (निसत्तम्) नितरां प्राप्तम् (अस्य) (चरतः) स्वगत्या व्याप्तस्य (ध्रुवस्य) निश्चलस्य (विश्वा) सर्वाणि (दिवः) प्रकाशमानस्य (रोचना) प्रकाशनानि (आपप्रिवांसम्) समन्तात् पूर्णम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा त्रिभिर्विद्युत्सूर्यप्रसिद्धाग्निरूपैरग्निः चराऽचरस्य कार्यसाधको वर्त्तते तथा विद्वांसोऽखिलस्य विश्वस्योपकारका भवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्युत, सूर्य व प्रसिद्ध अग्नीरूपाने अग्नी हा तीन चराचर जगाच्या कार्यांना सिद्ध करणारा आहे तसे विद्वान लोक संपूर्ण जगावर उपकार करणारे असतात. ॥ १ ॥